BMC चुनाव में ठाकरे भाई आए साथ, क्या इस बार बनेगी बात या साबित होगा आखिरी दांव? जानें

उद्धव और राज ठाकरे का साथ आना बीएमसी चुनाव में सत्ता पाने से ज्यादा ठाकरे ब्रांड और अपनी सियासी पहचान बचाने की कोशिश माना जा रहा है. बीजेपी के मजबूत होने और शिवसेना की टूट के बाद यह गठबंधन मुंबई की राजनीति में उनकी आखिरी बड़ी लड़ाई साबित हो सकती है.

 उद्धव-राज का जोड़ी
उद्धव-राज का जोड़ी
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मुंबई की सियासत में एक बार फिर ठाकरे परिवार चर्चा में है. राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे ने ऐलान किया है कि वे अपनी पार्टियों का विलय तो नहीं करेंगे लेकिन BMC चुनाव साथ मिलकर लड़ेंगे. इस फैसले को लेकर सियासी गलियारों में सवाल उठ रहा है क्या यह गठबंधन कोई बड़ा करिश्मा करेगा या दोनों भाई बस अपनी सियासी जमीन यानी अस्तित्व बचाने की कोशिश कर रहे हैं?

इस सवाल के जवाब में India Today Group के Tak चैनल्स के मैनेजिंग एडिटर Milind Khandekar से बातचीत करते हुए सीनियर पत्रकार राजदीप सरदेसाई कहते हैं कि,

'दोनों का साथ आना कोई चुनावी चाल नहीं बल्कि ठाकरे ब्रांड को बचाने की जंग है. पिछले दो-तीन साल में महाराष्ट्र की राजनीति में जो भूचाल आया है उसने ठाकरे परिवार की पकड़ कमजोर कर दी है. साल 2022 में एकनाथ शिंदे शिवसेना के बड़े हिस्से को अपने साथ ले गए और मुख्यमंत्री बन बैठे. इसके बाद शिवसेना पर शिंदे का दावा मजबूत हुआ और उद्धव ठाकरे धीरे-धीरे सियासी हाशिये पर जाते दिखे.'

बीजेपी बन चुकी है नंबर वन पार्टी 

वहीं दूसरी ओर राज ठाकरे की कहानी भी जैसी उम्मीद की गई भी वैसी नहीं रही. साल 2007 में जब उन्होंने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना बनाई थी. उस वक्त ऐसा जरूर लगा था कि वे महाराष्ट्र के बड़े नेता बनकर उभरेंगे लेकिन पार्टी कभी वैसी रफ्तार नहीं पकड़ पाई जैसी उससे उम्मीद की जा रही थी.

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अब हालात ये हैं कि बीजेपी महाराष्ट्र में नंबर वन पार्टी बन चुकी है और ठाकरे परिवार अपनी खोई ताकत वापस पाने की कोशिश में है. राजदीप के मुताबिक बीएमसी चुनाव इसीलिए बेहद अहम हैं क्योंकि पिछले 25-30 साल से इस नगर निगम पर ठाकरे परिवार का दबदबा रहा है. अगर यहां से भी पकड़ ढीली हुई तो उनके पास खोने के लिए बहुत कुछ नहीं बचेगा. 

ठाकरे का मंच आना इसी ओर इशारा 

उन्होंने आगे कहा कि आज हुई प्रेस कॉन्फ्रेंस में पूरे ठाकरे परिवार का एक साथ मंच पर आना भी इसी ओर इशारा करता है कि यह सिर्फ चुनावी समझौता नहीं, बल्कि पहचान बचाने की लड़ाई है. बाला साहब ठाकरे के दौर से चला आ रहा मराठी मानुष का कार्ड भी एक बार फिर खेलने की तैयारी दिख रही है.

अब देखना यह है कि ठाकरे भाइयों की ये नई जुगलबंदी मुंबई की राजनीति में कोई नया इतिहास रचती है या फिर यह कोशिश सिर्फ अस्तित्व बचाने तक ही सीमित रह जाती है. बीएमसी चुनाव इसका जवाब तय करेंगे.

बीएमसी चुनाव क्यों है साख की लड़ाई

दरअस बीएमसी चुनाव केवल नगर निगम का चुनाव नहीं है बल्कि ये मुंबई की सत्ता, पार्टियों की विश्वसनीयता और आने वाले बड़े चुनावों की दिशा तय करता है. लगभग 74 हजार करोड़ रुपये के बजट वाली एशिया की सबसे बड़ी सिविक बॉडी पर एक समय बिना बंटे शिवसेना का दो दशकों तक शासन रहा है. तब बीजेपी उसकी सहयोगी थी.

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